प्रवासी मज़दूर
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प्रवासी मज़दूर |
आँखे उठाकर देखों अपनी ये कैसे नज़ारे दिख रहे हैं, तपती सड़क पर आज कितने नंगे पाँव चल रहे है।
हर पल भूख और प्यास से लड़ रहे हैं।
सदियों से खून पसीने से सींचा था जिस शहर को आज उसी शहर से खुद को बेगाना पा रहे हैं।
हाँ, मज़दूर गांव वापस लौट रहे हैं।
निराशा की आंधी से झगझोड़ से गए है, सरकार के खोखले वादों से ऊब से गए हैं।
बोरिया बिस्तरा बांध वो अब निकल पड़े है।
हाँ,मज़दूर गांव वापस लौट रहें हैं।
देख के जिसे दिल पसीज़ जाए ऐसे दृश्य से हम हर रोज़ रुबरु हो रहे हैं,परंतु कुछ ठुल्ले राजनीति करने से बाज़ नही आ रहे है। बरसाओ न इनपे लाठियां यह तो बस घर जाना चा रहें हैं।
हाँ, मज़दूर गांव वापस लौट रहें हैं।
इस शहरी जंगल को अलविदा कह चुके है,थोड़ा हौसला जो बाकी है अंदर शायद उसी के सहारे गांवो कि ओर कूंच कर रहे हैं।
हाँ, मज़दूर गांव वापस लौट रहे हैं।
@journey_of_writer
Copyright Gold Poem 2020

Ekdam bhaari
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