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A Beautiful Poem for Father | Father's Day Special | Heart Touching Poetry| This will make your day

कौन है वह जिसने जिंदगी में एक रिश्ते का मायन बता दिया। गोद में बिठाकर आज भी प्यार से सेलाता है। जब तक ना मिलूं मैं उससे गले उसे चैन कहां आता है? कभी मां का कभी बाप का कभी दोस्त का फर्ज निभाता है। मेरी जिंदगी में यह इकलौता इंसान कई किरदार अदा कर जाता है। वह बाप ही तो है जो इतनी मोहब्बत बरसाता है। यार तुम भी हद करते हो बाप हूं में तुम्हारा। कुछ तो शर्म करो कहकर इस बात को हंसी में उड़ा जाता है। बच्चों की तरह हम से लड़ना फिर खुद कभी बच्चा बनकर हमारी गोद में सोना। कभी हमें सिखाना कभी हमसे सीखना। हल्का सा गुस्सा करके खुद ही उसका मजाक बनाना। हंसी हंसी में जिंदगी के बहुत से सबक सिखाना। इतना बड़ा दिल और ऐसी अदाकारी यार तू कहां से लाता है? यार तू यह उम्र का फर्क कैसे मिटाता है? इतने सारे किरदार एक साथ कैसे निभाता है? -nats Gold Poem Copyright 2020

Fathers Day Poem In Hindi - पिता दिवस पर कविता 2020 - Father's Day Par Kavita ...

बना  रहा है मेरे लिये पक्के मकान उसका घर अभी भी कच्चा है  माथे पे सिकन काँधे पर पसीना घुटनो में दर्द और फिर भी कहता है सब अच्छा है  माना कभी मुझको गले नहीं लगाता प्यार होकर भी प्यार नहीं जताता याद रखता है तौफे देता है वो अपना जन्मदिन नहीं मनाता मेरी हर जिद हर मर्जी पुरा करता है उसकी ख्वाहिशें क्या है नहीं बताता कोई पुछ ले मेरे काम काज के बारे में तो कहता है वो तो अभी बच्चा है  कमजोर आंखे थरथराते हाथ लड़खड़ाती जुबान और फिर भी कहता है सब अच्छा है  नामुमकिन में मुमकिन ढूंढ लाता है वो अक्सर घर देर आता है जिक्र नहीं करता हालातों को अपनी हमेशा खुद को अमीर बताता है वो बाप है जिन्दगी जीने का तरीका बताता है कभी डांट लगाता है कभी पीठ थप्थपाता है जो बाहर से कुछ और अन्दर से कुछ वो इन्सान कैसे सच्चा है   खाली जेब पुराने कपडे फटे जुते और फिर भी कहता है सब अच्छा है Paresaaniyo ka chehra sukoon ka naqaab  Samajhta khud ko fakeer bete ko nawab  Nind puri nahi hoti subah ghar se nikal jata hai Je...

प्रवासी मज़दूर - hindi kavita - indian labour - corona lockdown

प्रवासी मज़दूर प्रवासी मज़दूर आँखे उठाकर देखों अपनी ये कैसे नज़ारे दिख रहे हैं, तपती सड़क पर आज कितने नंगे पाँव चल रहे है। हर पल भूख और प्यास से लड़ रहे हैं। सदियों से खून पसीने से सींचा था जिस शहर को आज उसी शहर से खुद को बेगाना पा रहे हैं। हाँ, मज़दूर गांव वापस लौट रहे हैं। निराशा की आंधी से झगझोड़ से गए है, सरकार के खोखले वादों से ऊब से गए हैं। बोरिया बिस्तरा बांध वो अब निकल पड़े है। हाँ,मज़दूर गांव वापस लौट रहें हैं। देख के जिसे दिल पसीज़ जाए ऐसे दृश्य से हम हर रोज़ रुबरु हो रहे हैं,परंतु कुछ ठुल्ले राजनीति करने से बाज़ नही आ रहे है। बरसाओ न इनपे लाठियां यह तो बस घर जाना चा रहें हैं। हाँ, मज़दूर गांव वापस लौट रहें हैं। इस शहरी जंगल को अलविदा कह चुके है,थोड़ा हौसला जो बाकी है अंदर शायद उसी के सहारे गांवो कि ओर कूंच कर रहे हैं। हाँ, मज़दूर गांव वापस लौट रहे हैं। @journey_of_writer Copyright Gold Poem 2020

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