मेरे कमरे की वो कुर्सी
आज अचानक उस कुर्सी पर नजर पड़ी कपड़ों
से लदी हुई एक अजीब ईमारत बना दी हो जैसे
उसपे पता नहीं कितने समय से उसे उसके
परिवार से जुदा कर रखा है हमने ।
उसके साथ अक्सर भेद भाव करते है जब
जरूरत होती है तो उसपर से बोझ हटाकर हम
उससे उसका काम करवाते है और उसके अंदर
एक उम्मीद जगा देते है सब ठीक होने की ,फिर उठा कर उसी जगह ले आते है।
वहीं इमारत अलग तरह से बनाने के लिए,
वो निराश होकर फिर से वही रह जाती है
अपने परिवार से दूर ,उसी घर में लेकिन अलग , हम वहीं होते है
और फिर भूल जाते है उसे ठीक वैसा
ही इंसान का हाल होता है
किसी प्राइवेट कंपनी का पढ़ा लिखा मजदूर हो
या किसी कॉलेज का वो एवरेज विद्यार्थी जिसके साथ
ऐसा होता है हम सब एक जैसे ही है "मतलबी " बस नजर घुमाने की जरूरत है ।
सिद्धार्थ श्रीवास्तव
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